राष्ट्रीय

मोदी सरकार के नये फैसले को कानूनी विशेषज्ञों ने सराहा

औपनिवेशिक युग की हर निशानी मिटाने को आतुर मोदी सरकार की ओर से गुलामी काल के कानूनों- भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम- को बदलने के लिए लोकसभा में तीन विधेयक पेश करने के केंद्र के कदम का कानूनी विशेषज्ञों ने स्वागत किया है। विशेषज्ञों ने, हालांकि उन्हें हिंदी में नाम देने को लेकर अपनी आपत्तियां व्यक्त कीं। हम आपको बता दें कि गृह मंत्री अमित शाह ने शुक्रवार को लोकसभा में ब्रिटिशकालीन आईपीसी, सीआरपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेने के लिए तीन नये विधेयक पेश किये और कहा कि अब राजद्रोह के कानून को पूरी तरह समाप्त किया जा रहा है। शाह ने सदन में भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023; भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2023 और भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 पेश किये। ये क्रमशः भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1898 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की जगह लेंगे। उन्होंने कहा कि त्वरित न्याय प्रदान करने और लोगों की समकालीन आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखने वाली एक कानूनी प्रणाली बनाने के लिए ये परिवर्तन किए गए। इस मुद्दे पर दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) आर.एस. सोढ़ी ने कहा कि भारत एक “विकासशील और जीवंत समाज” है जिसमें कोई भी स्थिर कानून नहीं रख सकता है। सरकार के कदम पर टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) सोढ़ी ने कहा कि जहां भी बदलाव की जरूरत है, उसे लाया जाना चाहिए और जो भी कानून समाज की भलाई के लिए है उसका स्वागत किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘‘एक जीवंत समाज में, कानूनों को भी बदलना होगा। आपके पास स्थिर कानून नहीं हो सकते।’’ छोटे अपराधों के लिए दंड के रूप में पहली बार सामुदायिक सेवा करने के प्रस्तावित प्रावधान के बारे में पूछे जाने पर, न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) सोढ़ी ने कहा, “छोटे अपराधों के लिए दंड के रूप में सामुदायिक सेवा की शुरुआत एक अच्छी बात है, क्योंकि किसी को छोटी-छोटी बातों पर जेल भेजने से किसी को मदद नहीं मिलती।’वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह और विकास पाहवा ने कहा कि ये कानून औपनिवेशिक युग के “अप्रचलित कानून” थे और उन्हें समाप्त करने की आवश्यकता थी। विकास सिंह ने सरकार के इस कदम पर अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा, “यह ऐसी चीज है जिसकी सराहना की जानी चाहिए।” उन्होंने हालांकि इन विधेयकों का नाम हिंदी में रखने का मुद्दा उठाया और कहा कि इन कानूनों के नाम हिंदी में नहीं होने चाहिए क्योंकि यह अदालतों की आधिकारिक भाषा नहीं है। विकास सिंह ने कहा कि जो लोग हिंदी से परिचित नहीं हैं, उन्हें इन प्रस्तावित अधिनियमों के नाम समझने में कठिनाई होगी। उन्होंने कहा, “मैंने विधेयकों को विस्तार से नहीं देखा है, लेकिन कम से कम नाम बदलना उस न्यायिक प्रणाली में पूरी तरह से निरर्थक है, जो काफी हद तक अंग्रेजी भाषा पर चलती है, खासकर उच्चतम न्यायालय में जहां यह संविधान द्वारा प्रावधानित है कि अदालत की भाषा अंग्रेजी है।” उनकी बात का समर्थन करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने कहा कि नामकरण में ये बदलाव निरर्थक हैं। गोपाल शंकरनारायणन ने कहा, ‘‘इन कानूनों के नामों को हालांकि हिंदी शब्दों से बदलना उस न्यायिक प्रणाली में “पूरी तरह से अर्थहीन” है, जो ज्यादातर अंग्रेजी में चलती है।”